वाराणसी की कथाये

काशी प्रारम्भ से ही शैव धर्म का प्रधान केन्द्र रही है | इसी कारण यहाँ शिवपूजा की प्रधानता मिलती है | शिव को मुख्यतः सृष्टि का संहारकर्ता बताया गया है किन्तु नाम के अनुरूप उनके स्वरूपों में कल्याण का भाव भी परिलिक्षित है | वैदिक से कालान्तर में शिव का जो रूप विकसित हुआ उसे गुप्तकाल में और बाद के शैव पुराणों में एक विरत सन्दर्भ में प्रस्तुत किया गाया और मान्यता विकसित हुई कि शिव माहादेव के रूप में सृष्टि के संहार के साथ उसकी रचना और पालन से भी सम्बद्ध है इसका एक उदहारण यशोधर्मन विष्णुवर्धन का मंदसौर (533-34 ई0) लेख है जिसमें शिव को 'भवसृजन' अर्थात सृष्टि की रचना करने वाला कहा गया है |

काशी के मन्दिरों के गर्भगृहों में अन्यत्र की भांति केवल लिंग विग्रह की मुर्तिया ही प्रतिष्ठित है | भुनेश्वर के लिंगराज, एलोरा के कैलाश, कांचीपुरम के कैलाशनाथ, खजुराहो के कंदरिया महादेव एवं विश्वनाथ, तंजौर के वृहदेश्वर के समान ही काशी के कर्दमेश्वर मन्दिर के गर्भगृह में भी शिवलिंग ही स्थापित है | वस्तुतः योनीपट्ट पर स्थापित शिवलिंग सृष्टि के मूल में निहित पुरुष और प्रकृति के समन्वय का परिचायक है |
                                                    प्राचीन काल से चली आ रही लिंग स्थापना व पूजन की ये परम्परा आज भी सभी सभी क्षेत्रो के मन्दिरों के गर्भगृह में मानव विग्रह मूर्तियों के स्थान पर देखने को मिलती है | 

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